सुवेल पर्वत पर श्री रामचन्द्र जी ने लंका का निरीक्षण करने के पश्चात् वे अपने सेनपतियों, विभीषण तथा वानरों आदि को लेकर लंका के मुख्य द्वार के निकट पहुँचे। यही लंका का सबसे विशाल मुख्य द्वार था। उन्होंने वहाँ पर एक दर्भेद्य व्यूह की रचना की। उस विशाल द्वार पर लक्ष्मण सहित राम धनुष धारण कर खड़े हो गये। पूर्व द्वार पर सेनापति नल, नील, मैंद तथा द्विविद असंख्य पराक्रमी वीरों के साथ खड़े हुये। दक्षिण द्वार पर अंगद, ऋषभ, गज, गवय तथा गवाक्ष नामक तेजस्वी सेनापति एकत्रित हुये। पश्चिम द्वार से आक्रमण का भार हनुमान, प्रजंघ, तरस आदि अद्वितीय पराक्रमी सेनानायकों को सौंपा गया। उन सबके मध्य में एक दुर्भेद्य व्यूह बनाकर वानरराज सुग्रीव चुने हुये वानरों के साथ खड़े हो गये। रामचन्द्र और सुग्रीव दोनों के बीच में विशाल सेना लेकर जाम्बवन्त तथा सुषेण खड़े हुये।
इस प्रकार की व्यूह रचना करके राम ने राजधर्म का विचार करते हुए वालिपुत्र अंगद को बुला कर बोले, “सौम्य! कपिवर! तुम तेजस्वी, बलवान तथा वाक्-पटु हो। इस लिये तुम रावण से जाकर कहो कि तुम चोरों की भाँति एकान्त से सीता को चुरा लाये थे। अब रणभूमि में आकर अपना रणकौशल दिखाओ। हम तुम्हें एक अवसर और देते हैं। यदि तुम सीता को लेकर दाँतों में तृण दबाकर हमसे अपने अपराध के लिये क्षमायाचना करोगे तो हम तुम्हें अब भी क्षमा कर देंगे, अन्यथा कल प्रातःकाल से युद्ध होगा जिसमें तुम समस्त राक्षसों के साथ मारे जाओगे।”
रामचन्द्र की आज्ञा पाकर वालिसुत अंगद छलांग लगाकर लंका के परकोटे को पार कर रावण के दरबार में पहुँचे। उन्होंने कहा, “मैं वालि का पुत्र और श्री रामचन्द्र जी का दूत अंगद हूँ। श्री रामचन्द्र जी ने कहलाया है किस तुमने सीता को चुरा कर जो जघन्य अपराध किया है, उसके लिये मैं परिवार सहित तुम्हारा और तुम्हारे वंश का नाश करूँगा। यदि अब भी तुम अपनी कुशल चाहते हो तो सीता को आगे करके मुख में तृण रखकर क्षमायाचना करो, तुमको क्षमा कर दिया जायेगा तुम देवता, दानवों, यक्ष, गन्धर्व सबके शत्रु हो, इसलिये तुम्हारा विनाश करना ही श्रेयस्कर है। मैं श्री रामचन्द्र जी की ओर से तुम्हें एक बार फिर समझाता हूँ, यदि तुमने उनसे क्षमा नहीं माँगी तो तुम मारे जाओगे और लंका का राज्य तथा ऐश्वर्य तुम्हारा भाई विभीषण भोगेगा।”
अंगद के कठोर वचन सुनकर क्रुद्ध हो रावण ने अपने सैनिकों को आज्ञा दी, “इस दुर्बुद्धि वानर को पकड़ कर मौत के घाट उतार दो।”
रावण की आज्ञा पाते ही चार राक्षसों ने अंगद को पकड़ लिया। पकड़े जाने पर उन्होंने एक धक्का देकर उन्हें भूमि पर गिरा दिया ओर स्वयं छलांग लगाकर छत पर पहुँच गये। क्रोध से जब उन्होंने छत पर अपना पैर पटका तो एक ही आघात से छत ध्वस्त हो कर नीचे आ गिरी। फिर विजय गर्जना करते हुये अपने कटक को लौट गये।
इसी समय गुप्तचरों ने आकर रावण को सूचना दी कि वानरों ने लंका को चारों ओर से घेर लिया है। उसने स्वयं छत पर चढ़कर चारों ओर वानरों की विशाल सेना को व्यूह बनाये देखा तो एक बार उसका हृदय भी भय और आशंका से व्याप्त हो उठा।
उधर अंगद के पहुँचने के पश्चात् रामचन्द्र जी ने अपनी सेना को लंका का विध्वंस करने तथा राक्षसों का वध करने की आज्ञा दी। आज्ञा पाते ही वानर सेना बड़े-बड़े वृक्षों एवं शिलाखण्डों को लेकर लंका पर चढ़ दौड़ी। वे वृक्षों, पत्थरों, लात-घूसों से परकोटे और उसके द्वारों को तोड़ने और विशाल खाई को पाटने लगे। थोड़ी ही देर में उन्होंने भयंकर आघातों से नगर के चारों फाटक चूर-चूर कर दिया। परकोटे में बड़े-बड़े छेद हो गये। जब पुरी के द्वार और परकोटे नष्ट-भ्रष्ट हो गये तो रावण ने राक्षस योद्धाओं को बाहर निकल कर युद्ध करने का आदेश दिया। आदेश मिलते ही राक्षस सेना हाथियों, घोड़ों, रथों आदि पर सवार होकर अपनी पैदल सेना के साथ पूरे वेग से वानरों पर टूट पड़ी। दोनों ओर के सैनिक अपने प्राणों का मोह त्याग कर भयानक युद्ध करने लगे। हाथी, घोड़ों की चिंघाड़ तथा हिनहिनाहट से, तलवारों की झंकार और सैनिकों के ललकार भरे जयजयकार से सारा वातावरण गूँज उठा। नाना प्रकार के वाद्यवृनद तथा रणभेरियाँ योद्धाओं के उत्साह को द्विगुणित कर रही थीं। वानरों का उत्साह राक्षसों से कई गुणा अधिक था। उनके वृक्षों, शिलाओं, नखों तथा दाँतों के प्रहार ने राक्षसों की सेना में भयंकर मार-काट मचा दी असंख्य राक्षस मर-मर कर गिरने लगे। समुद्र तट से लंका के द्वार तक भूमि मृत एवं घायल सैनिकों से पटी दिखाई देती थी।
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